सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दवाओं और टीकों के क्लिनिकल परीक्षण अक्सर गरीब देशों में किए जाते हैं। इस टिप्पणी के साथ शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ता को इस मुद्दे पर केंद्र के बनाए नियमों पर आपत्तियां दर्ज करने की अनुमति दे दी। जस्टिस ऋषिकेश रॉय और जस्टिस एसवीएन भट्टी की पीठ ने केंद्र की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल अर्चना पाठक दवे की दलीलों पर विचार किया।
दवे ने कहा कि नई दवाओं और क्लिनिकल परीक्षणों के लिए नियम 2019 में बनाए गए थे। नियमों का पालन करते हुए भारत में नैदानिक परीक्षणों और नई दवाओं की स्वीकृति प्रक्रिया को कारगर बनाने के लिए 2024 में नए औषधि और नैदानिक परीक्षण (संशोधन) नियम अधिसूचित किए गए थे। इसका उद्देश्य रोगी सुरक्षा प्रोटोकॉल में सुधार करना और वैश्विक मानकों का पालन सुनिश्चित करना था।
गरीबों को गिनी पिग के रूप में किया जा रहा इस्तेमाल
2012 में जनहित याचिका दाखिल करने वाले एनजीओ स्वास्थ्य अधिकार मंच के वकील संजय पारिख कहा कि गरीब नागरिकों को अभी भी गिनी पिग के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्हें पर्याप्त मुआवजा नहीं दिया जा रहा है। एनजीओ ने बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की ओर से देशभर में बड़े पैमाने पर नैदानिक दवा परीक्षण करने का आरोप लगाया था। पारिख ने कहा कि वह शिकायतों का उचित निवारण सुनिश्चित करने के लिए मामले में अपनी आपत्तियां और प्रस्तुतियां दर्ज कराना चाहते हैं।अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें