नई दिल्ली — व्यावहारिकता और सहानुभूति का संतुलित संयोजन अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक पॉक्सो मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। अदालत ने उस आपराधिक मामले को खारिज कर दिया जिसमें अभियुक्त और पीड़िता अब पति-पत्नी हैं और एक बच्चे के माता-पिता बन चुके हैं।
शीर्ष अदालत ने कहा, “कभी-कभी कानून को न्याय के आगे झुकना पड़ता है।” यह देखते हुए कि यह अपराध वासना का नहीं, बल्कि प्रेम का परिणाम था, न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत विशेष शक्तियों का प्रयोग करते हुए अभियुक्त की दोषसिद्धि और सजा दोनों रद्द कर दी।
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने अभियुक्त से कहा कि वह अपनी पत्नी और बच्चे का सम्मानपूर्वक भरण-पोषण करे और उन्हें न छोड़े। यह अपील उस व्यक्ति ने दायर की थी जिसे आईपीसी की धारा 366 और पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत क्रमशः 5 वर्ष और 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा मिली थी।
मद्रास हाईकोर्ट ने पहले उसकी अपील खारिज कर दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पीड़िता अब उसी व्यक्ति के साथ शांतिपूर्ण पारिवारिक जीवन जीना चाहती है, जिस पर वह आश्रित है। यदि आपराधिक कार्यवाही जारी रहती है, तो यह परिवार टूट जाएगा और समाज के ताने-बाने को भी नुकसान होगा।
पीठ ने कहा, “हम मानते हैं कि यह ऐसा मामला है जहां कानून को न्याय के लिए झुकना चाहिए।”
अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि आपराधिक कानून समाज की संप्रभु इच्छा का प्रतीक है, लेकिन उसका प्रशासन वास्तविक जीवन की परिस्थितियों से अलग नहीं हो सकता। न्याय देने के लिए एक सूक्ष्म और संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है — जहां जरूरत हो वहां कठोरता, और जहां उचित हो वहां करुणा दिखाई जानी चाहिए।
न्यायालय ने यह भी कहा कि न्याय, निवारण और पुनर्वास के बीच संतुलन बनाना जरूरी है। सबसे गंभीर अपराधियों को भी उचित मामलों में दया के आधार पर न्याय मिल सकता है। इस मामले में व्यावहारिकता और सहानुभूति दोनों को मिलाकर फैसला दिया गया, क्योंकि अभियुक्त और पीड़िता कानूनी रूप से विवाहित हैं और एक परिवार के रूप में साथ रह रहे हैं।

