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Saturday, July 19, 2025

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बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: यौन शोषण पीड़िता को जबरन गर्भ ढोने को नहीं किया जा सकता मजबूर

नाबालिग पीड़िता के अधिकारों की रक्षा में कोर्ट का बड़ा कदम
बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि किसी भी यौन शोषण की शिकार लड़की या महिला को उसकी इच्छा के खिलाफ गर्भ ढोने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। यह टिप्पणी उस समय आई जब एक 12 वर्षीय बच्ची की 28 हफ्ते की गर्भावस्था को समाप्त करने की इजाजत मांगी गई थी। मेडिकल बोर्ड ने इस प्रक्रिया को जोखिम भरा बताया, लेकिन कोर्ट ने बच्ची की मानसिक और भावनात्मक स्थिति को देखते हुए उसे गर्भपात की अनुमति दी।

न्यायालय का मानवाधिकारों पर ज़ोर
कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ—जस्टिस नितिन साम्ब्रे और जस्टिस सचिन देशमुख—ने अपने 17 जून के आदेश में कहा कि मेडिकल जोखिम के बावजूद यह मामला केवल चिकित्सकीय नहीं, बल्कि बच्ची की इच्छा और उसके जीवन के अधिकार से जुड़ा है। कोर्ट ने माना कि यदि गर्भावस्था अवांछित है या यौन हिंसा का परिणाम है, तो महिला पर ही इसका सारा मानसिक और शारीरिक बोझ आता है।

पारिवारिक सदस्य द्वारा किया गया यौन उत्पीड़न
इस मामले में पीड़िता के साथ उसके ही चाचा ने यौन उत्पीड़न किया था। जब बच्ची गर्भवती हुई, तो उसके पिता ने बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और गर्भपात की अनुमति मांगी। कोर्ट ने मेडिकल बोर्ड की चेतावनी के बावजूद कहा कि 12 साल की बच्ची को मां बनने के लिए बाध्य करना, उसकी मर्जी के खिलाफ, उसके भविष्य और अधिकारों के साथ अन्याय होगा।

सुरक्षित प्रक्रिया का निर्देश
कोर्ट ने निर्देश दिया कि गर्भपात की प्रक्रिया अत्यंत सावधानी और सुरक्षा के साथ की जाए। इसमें बाल रोग विशेषज्ञ समेत एक अनुभवी चिकित्सा दल को शामिल किया जाए। चूंकि मामला 20 सप्ताह से अधिक की गर्भावस्था से जुड़ा था, इसलिए इसे मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट के तहत कोर्ट की विशेष अनुमति से ही आगे बढ़ाया गया।

महिला अधिकारों की दिशा में मिसाल
यह फैसला ना केवल पीड़िता को राहत प्रदान करता है, बल्कि भारत में यौन शोषण की पीड़िताओं के लिए एक नई न्यायिक दृष्टिकोण की मिसाल भी पेश करता है। यह स्पष्ट संदेश देता है कि महिला की इच्छा सर्वोपरि है और किसी भी हालत में उसे मातृत्व के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, खासकर जब वह पीड़ा और अपराध का शिकार हो।

यह निर्णय आने वाले समय में समान मामलों के लिए नजीर साबित हो सकता है, और यह संकेत देता है कि भारतीय न्यायपालिका महिलाओं के अधिकारों के प्रति जागरूक और संवेदनशील हो रही है।

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