सुप्रीम कोर्ट ने सेना के एक कर्मचारी को फटकार लगाते हुए कहा कि अनुशासित रहना सशस्त्र बल सेवा का आंतरिक हिस्सा है और इस संबंध में कोई भी छूट गलत संदेश भेजती है। दरअसल, शीर्ष अदालत ने बिना सूचना के अतिरिक्त छुट्टियां लेने के लिए एक मैकेनिकल ट्रांसपोर्ट ड्राइवर की सेना सेवा से बर्खास्तगी को बरकरार रखते हुए यह टिप्पणी की।
न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने कहा कि बलों में सेवारत लोगों द्वारा अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जा सकती।
यह है मामला
याचिकाकर्ता ने चार जनवरी 1983 में मैकेनिकल ट्रांसपोर्ट ड्राइवर के रूप में सेना सेवा कोर ज्वॉइन की थी। 1998 में, उन्हें शुरू में 8 नवंबर से 16 दिसंबर तक 39 दिनों के लिए छुट्टी दी गई थी। बाद में, छुट्टी को बढ़ाने के अनुरोध को भी अधिकारियों ने स्वीकार कर लिया था और उन्हें 30 दिन की अग्रिम वार्षिक छुट्टी 17 दिसंबर 1998 से 15 जनवरी, 1999 तक दी गई थी। इसके बावजूद वह दोबारा ड्यूटी पर शामिल नहीं हुए। उनका कहना था कि उनकी पत्नी बीमार पड़ गई हैं और उन्हें देखभाल करनी हैं।
1999 में किया था बर्खास्त
15 फरवरी 1999 को उन परिस्थितियों की जांच करने के लिए सेना अधिनियम की धारा 106 के तहत एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी आयोजित की गई थी। इसके तहत याचिकाकर्ता को छुट्टी से अधिक समय तक रुकने के लिए दोषी पाया गया। समरी कोर्ट मार्शल ने उसे दोषी पाया और सेवा से बर्खास्त कर दिया। अदालत ने पाया कि ड्राइवर, एक पूर्व सिपाही, एक आदतन अपराधी प्रतीत होता है और वह अपनी छुट्टी की माफी की मांग करके भी बहुत लंबे समय तक काम पर नहीं गया।
दूसरे लोगों में जाएगा गलत संदेश
शीर्ष अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता, जो सशस्त्र बलों का सदस्य था उसकी ओर से इस तरह की घोर अनुशासनहीनता को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। उनकी 108 दिनों की लंबी अवधि के लिए छुट्टी की अनुपस्थिति के लिए माफी को स्वीकार कर लिया जाता, तो सेवा में अन्य लोगों के लिए गलत संकेत जाएगा। इस तथ्य को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि अनुशासन सशस्त्र बलों की अंतर्निहित पहचान है और सेवा की ऐसी शर्त है, जिस पर समझौता नहीं किया जा सकता।
ड्राइवर ने नहीं जमा किए थे कोई दस्तावेज
शीर्ष अदालत ने शुरुआत में कहा कि ड्राइवर ने अपने दावे को सही ठहराने के लिए रिकॉर्ड पर कोई दस्तावेज नहीं रखा था कि वह अनुपस्थित था क्योंकि उसे अपनी बीमार पत्नी की देखभाल करनी थी। न्यायालय ने यह भी कहा कि दी गई सजा सेना अधिनियम के तहत दी गई सजा से अधिक गंभीर नहीं थी। शीर्ष अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि जब उल्लंघन की प्रकृति और गंभीरता के आधार पर अपराध के लिए सजा देने की बात आती है तो समरी कोर्ट मार्शल को पर्याप्त विवेक का अधिकार होता है। इसलिए, अदालत ने ड्राइवर की इस दलील को खारिज कर दिया कि उसे दी गई सजा अनुपातहीन थी। अत: अपील खारिज कर दी गई। पीठ ने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण लखनऊ क्षेत्रीय पीठ द्वारा ड्राइवर को सेवा से बर्खास्त करने के फरवरी 2015 के आदेश को बरकरार रखा।