29 C
Mumbai
Friday, November 8, 2024

आपका भरोसा ही, हमारी विश्वसनीयता !

AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर 1967 का फैसला खारिज, SC ने नए सिरे से निर्धारण के लिए बनाई 3 जजों की बेंच

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसख्यंक दर्जे पर शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है. कोर्ट ने कहा है कि यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे का दावा नहीं कर सकती है. अन्य समुदायों को भी इस संस्थान में बराबरी का अधिकार है. यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने दिया है. इस बेंच में 7 जजों ने डिसेंट नोट दिया है. मामले पर सीजेआई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा एकमत हैं. वहीं, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा का फैसला अलग है.

कोर्ट ने 4-3 के बहुमत से अपने फैसले में 1967 के उस फैसले को खारिज कर दिया है, जो एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इनकार करने का आधार बना था.

सुप्रीम कोर्ट ने AMU को अल्पसंख्यक दर्जे की हकदार माना है. कोर्ट ने इस मामले में अपना ही 1967 का फैसला बदल दिया है जिसमें कहा गया था कि AMU अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान का दर्जे का दावा नहीं कर सकती है. अन्य समुदायों को भी इस संस्थान में बराबरी का अधिकार है. यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने दिया है. इस बेंच में 7 जज शामिल थे जिसमें से 4 ने पक्ष में और 3 ने विपक्ष में फैसला सुनाया. इस फैसले को देते हुए मामले को 3 जजों की रेगुलर बेंच को भेज दिया गया है. इस बेंच को यह जांच करनी है कि एएमयू की स्थापना अल्पसंख्यकों ने की थी क्या?

सीजेआई ने कहा कि अनुच्छेद 30ए के तहत किसी संस्था को अल्पसंख्यक माने जाने के मानदंड क्या हैं? किसी भी नागरिक द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थान को अनुच्छेद19(6) के तहत विनियमित किया जा सकता है. अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार निरपेक्ष नहीं है. अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के विनियमन की अनुमति अनुच्छेद 19(6) के तहत दी गई है, बशर्ते कि यह संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र का उल्लंघन न करे.

सीजेआई ने कहा कि धार्मिक समुदाय कोई संस्था स्थापित कर सकता है, लेकिन उसका एडमिनिस्ट्रेशन नहीं कर सकता. एक तर्क ये भी है कि विशेष कानून के तहत जिन संस्थानों की स्थापना हो उनको अनुच्छेद 31 के तहत कंवर्ट नहीं किया जा सकता.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान द्वारा ‘अलीगढ़ मुस्लिम कॉलेज’ के रूप में की गई थी, जिसका उद्देश्य मुसलमानों के शैक्षिक उत्थान के लिए एक केंद्र स्थापित करना था. बाद में, 1920 में इसे विश्वविद्यालय का दर्जा मिला और इसका नाम ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ रखा गया. एएमयू अधिनियम 1920 में साल 1951 और 1965 में हुए संशोधनों को मिलीं कानूनी चुनौतियों ने इस विवाद को जन्म दिया. सुप्रीम कोर्ट ने 1967 में कहा कि एएमयू एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है. लिहाजा इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता. कोर्ट के फैसले का अहम बिंदू यह था कि इसकी स्थापना एक केंद्रीय अधिनियम के तहत है ताकि इसकी डिग्री की सरकारी मान्यता सुनिश्चित की जा सके. अदालत ने कहा कि अधिनियम मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रयासों का परिणाम तो हो सकता है लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि विश्वविद्यालय की स्थापना मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने की थी. 

सर्वोच्च अदालत के इस फैसले ने एएमयू की अल्पसंख्यक चरित्र की धारणा पर सवाल उठाया. इसके बाद देशभर में मुस्लिम समुदाय ने विरोध प्रदर्शन किए जिसके चलते साल साल 1981 में एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा देने वाला संशोधन हुआ. साल 2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1981 के एएमयू संशोधन अधिनियम को असंवैधानिक करार देते हुए इसे रद्द कर दिया. 2006 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी. फिर 2016 में केंद्र ने अपनी अपील में कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के सिद्धांतों के विपरीत है. साल 2019 में तत्कालीन CJI रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने मामले को सात जजों की बेंच के पास भेजा था, जिस पर आज फैसला आया है.

ताजा खबर - (Latest News)

Related news

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here